लेकिन केंद्र को पंजाब और हरियाणा के किसानों तक पहुंचना चाहिए ताकि किसानों की गलतफहमी दूर हो सके। महामारी के दौरान जिस तरह से अध्यादेशों को लाया गया था, ट्रस्ट के घाटे में इजाफा हो सकता है।
गुरुवार को, हरियाणा के किसान संगठनों ने कुरुक्षेत्र के पास पिपली थोक अनाज बाजार में एक रैली आयोजित करने के लिए महामारी के लिए जारी किये गए दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया। हरियाणा-पंजाब के किसान काफी गुस्से में नज़र आए इस गुस्से के चलते किसानों ने कुरुक्षेत्र के पिपली में राष्ट्रीय राजमार्ग पर भी जाम लगा दिया। जिससे दिल्ली-चंडीगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग को कुछ घंटों के लिए रुक गया। अब सवाल ये है कि आखिर किसान इतना क्यों नाराज़ हैं? किस कारण से सड़कों पर उतरकर बीजेपी के खिलाफ नारेवाजी कर रहे हैं।
इस प्रश्नों के जवाब में बीकेएस ने अपनी ओर से कहा कि केंद्र सरकार की ओर से 5 जून की तारीख को तीन बिल जारी किए गए हैं, वो किसानों के फायदे के विरोध है, इसी कारण से किसान नाराज़ हैं। इसकी के विराध में जाकर में हजारों किसान इस वक्त पर सड़कों पर उतर आए हैं। जिसके चलते पुलिस प्रशासन को भी कार्रवाई करनी पड़ी है।
क्या हैं अध्यादेश में ?
केंद्र सरकार की तरफ से जारी किए गए तीन अध्यादेश जिसको लेकर किसान नाराज हैं। उनमें से पहले अध्यादेश के अंदर अब मंडी से बाहर भी व्यापारी किसानों की फसलों को आसानी से खरीद सकेंगे। केंद्र की ओर से अब दाल, आलू, प्याज ऑयल आदि को जरूरी चीजों के नियम से बाहर कर दिया गया है और इसकी स्टॉक सीमा तक खत्म कर दी है। इन सबके बावजूद सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को आगे ले जाने के लिए भी नीति पर काम शुरू कर दिया है।
लेकिन अगर देखा जाए तो ये मुद्दा सिर्फ पंजाब और हरियाणा तक ही सीमित हैं। महाराष्ट्र में स्वाभिमानी पक्ष के राजू शेट्टी और शतकरी संगठन के अनिल घनवत सहित किसान नेताओं ने अध्यादेशों से कोई आपत्ति नहीं जताई है। दो बार लोकसभा सांसद रह चुकी शेट्टी ने अध्यादेशों को "किसानों के लिए वित्तीय स्वतंत्रता की ओर पहला कदम" बताया है।
वहीं दूसरी तरफ पंजाब और हरियाणा के किसानों को भी मुख्य रूप से पहले अध्यादेश से ही आपत्ति है। दुसरे और तीसरे अध्यादेश को लेकर उनके पास भी कोई खास बिंदु नहीं जिसपर वो आपत्ति जाता सकें।
विरोध प्रदर्शनों क्यों ?
2019-20 में, पंजाब और हरियाणा में सरकारी एजेंसियों ने 226.56 लाख टन धान और 201.14 लाख टन गेहूं खरीदा, जिसका मूल्य एमएसपी में 1,835 रुपये और 1,925 रुपये प्रति क्विंटल था, जो 80,293.21 करोड़ रुपये रहा होगा।
एमएसपी आधारित सरकारी खरीद को समाप्त करने का सुझाव देने के लिए अध्यादेश में किसी चीज की विस्तृत और साफ़ जानकारी नहीं है। किसानों की ओऱ से ये कहा गया है कि सरकार अध्यादेश के चलते किसी तरह का लाभ उन्हें नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं किसानों का शोषण भी अब बढ़ जाएगा। सबसे अहम बात ये है कि यदि कोई किसान दूसरी मंडी में जाता है और उसमें सामान बेचता है तो परिवहन लागत का भुगतान वो करेगा।
पंजाब की कांग्रेस सरकार ने भी 28 अगस्त को विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र से एमएसपी आधारित खरीद "किसानों का वैधानिक अधिकार" बनाने का आग्रह किया था। इसके अलावा कोंग्रेसने एफसीआई के जरिये से ऐसी खरीद की "निरंतरता" मांगी।
मंडियों में राज्य सरकारों और कमीशन एजेंट का आना। कमीशन एजेंट की दुकानों के बाहर किसानों के सामान को अनलोड करवाया जाता हैं , साफ किया जाता है, नीलाम किया जाता है, तौला जाता है और बैग में लोड किया जाता है और बाहर ले जाया जाता है। उन्हें 2.5% कमीशन मिलता है। पिछले साल पंजाब और हरियाणा में ये 2,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। मंडी के मूल्य से पंजाब का सालाना राजस्व और ’ग्रामीण विकास उपकर' - जिसमें धान और गेहूं के मूल्य
पर 6%, बासमती पर 4% और कपास और मक्का पर 2% तक की बढ़ोतरी का अनुमान लगाया जा रहा है, जो 3,500-3,600 करोड़ रुपये है। अगर मंडियों से दूर जाना पड़ा तो स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ेगा।
क्या और कोई रास्ता है?
जैसा कि हम आपको बता चुके हैं कि इन अध्यादेशों से पूरे देश में कोई आपत्ति नहीं है सिवाय हरियाणा पंजाब के। महाराष्ट्र के लोगों का मानना है कि ये किसानों के लिए फायदेमन्द साबित हो सकता है। उनका मानना है कि अभी किसान अपनी उपज को मंडियों में ले जाने पर पैसा खर्च करते हैं, लेकिन अगर खरीद उनके खेतों के करीब हो जाए तो उनका फायदा होगा। लेकिन केंद्र को पंजाब और हरियाणा के किसानों तक पहुंचना चाहिए ताकि किसानों की गलतफहमी दूर हो सके। महामारी के दौरान जिस तरह से अध्यादेशों को लाया गया था, ट्रस्ट के घाटे में इजाफा हो सकता है।