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ब्रह्मपुराण के अनुसार, बचपन से ही शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे. बड़े होने पर शनिदेव का विवाह चित्ररथ की कन्या से किया गया था. शनिदेव की पत्नि सती-साध्वी और परम तेजस्विनी थीं. एक बार पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से वे इनके पास पहुचीं पर ये श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न थे. उस वक़्त शनिदेव को बाह्य जगत की कोई सुधि ही नहीं थी. शनिदेव की पत्नि प्रतिक्षा करते-करते जब थक गयी तो क्रोधित होकर उन्होंने शनि भगवान को शाप दे दिया कि आज से वो जिसे भी देखेंगे वह नष्ट हो जाएगा. फिर बाद में ध्यान टूटने पर जब शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया और समझाया तो पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति उसमें ना थी. तभी से शनिदेव अपना सिर नीचा करके रहने लगे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके द्वारा किसी का अनुचित हो.
आपको बता दें शनिदेव के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं. शनिदेव का वाहन गीध है और इनका रथ लोहे का बना हुआ है. ये अपने हाथों में धनुष, बाण, त्रिशूल तथा वरमुद्रा धारण करते हैं. शनि भगवान एक-एक राशि में तीस-तीस महीने रहते हैं. शनि कुम्भ व मकर राशि के स्वामी हैं और इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है. शनि देव का सामान्य मंत्र है – “ऊँ शं शनैश्चराय नम:” इस मंत्र का जाप करने से कष्ट दूर हो जाते हैं ,श्रद्धानुसार रोज एक निश्चित संख्या में इस मंत्र का जाप करना चाहिए.
शनि देव का व्रत और पूजा के लिए विशेष दिन शनिवार माना जाता है. लेकिन श्रावण मास में शनिवार का व्रत प्रारम्भ करना अति मंगलकारी होता है. शनि भगवान का व्रत करने वालों को सुबह ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके पूजा अर्चना करनी चाहिए. शनि भक्तों को शनिवार के दिन शनि मंदिर में जाकर शनि भगवान को नीले लाजवन्ती का फूल, तिल, तेल, गुड़ अर्पण करना चाहिए. शनि देव के नाम से दीपोत्सर्ग करना चाहिए जिसमें सबसे ज्यादा महत्त्व तेल का होता है. शनि भगवान की पूजा के बाद अगर राहु और केतु की पूजा भी पूजा करेंगे तो विशेष फल की प्राप्ति होगी.
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