आज की कहानी हम ऐसे ही लोगों के बारे में बताने जा रहे है, जिन्होंने मुश्किल हालात को बुलंद हौंसलों से मात दी और जैसे अफ़सर बनकर युवाओं के लिए प्रेरणा बन गए हैं.
कहते हैं कि सपने वो नहीं होते जो आपको नींद के दौरान आते हैं, सपने तो वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते. लेकिन अगर कोई अपने सपनों को पूरा करने का ठान ले तो वो उनको पूरा करके ही रहता हैं. आज की कहानी हम ऐसे ही लोगों के बारे में बताने जा रहे है, जिन्होंने मुश्किल हालात को बुलंद हौंसलों से मात दी और जैसे अफ़सर बनकर युवाओं के लिए प्रेरणा बन गए हैं.
ये भी पढ़े:IPL: विराट कोहली की RCB लगा पाएगी जीत की हैट्रिक, ऐसी हो सकती है दिल्ली और पंजाब की प्लेइंग इलेवन
1. पिता ऊंट-गाड़ी खींचते थे और बेटा अपने दम पर बना IPS अफ़सर
गुजरात कैडर के आईपीएस प्रेम सुख डेलू राजस्थान के बीकानेर जिले से हैं. एक किसान परिवार से आने वाले प्रेम के पिता के पास ज्यादा जमीन नहीं थी, इसलिए वह ऊंट गाड़ी चलाते थे और लोगों का सामान एक जगह से दूसरी जगह ले जाते थे. बहुत कम उम्र में, प्रेम समझ गया था कि शिक्षा ही उसके परिवार को गरीबी की इस नैतिकता से बाहर निकाल सकती है. हालांकि, उस समय प्रेम के दिमाग में केवल एक ही सरकारी नौकरी थी. ऐसे में उन्होंने पटवारी की परीक्षा दी और सफल भी हुए.
यह प्यार और अन्य लोगों के बीच अंतर था. जहां नौकरी मिलने के बाद लोग संतुष्ट होंगे. उसी समय, प्रेम ने चलते रहने का फैसला किया. बाद में उन्होंने राजस्थान में ग्राम सेवक के पद के लिए परीक्षा में दूसरी रैंक हासिल की. फिर उन्हें सब इंस्पेक्टर, असिस्टेंट जेलर जैसे पदों के लिए चुना गया. यहां तक कि उन्हें एक कॉलेज में व्याख्याता के रूप में चुना गया था, लेकिन अब उनके जीवन के सबसे बड़े सपनों को पूरा करने की बारी थी. वर्ष 2015 में, प्रेम के समर्पण और कड़ी मेहनत का भुगतान किया गया और उन्होंने अपने दूसरे प्रयास में यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण की. उनकी ऑल इंडिया रैंक 170 वीं आई थी.
2. ग़रीबी की जंजीरें और पोलियो भी नहीं रोक पाया सफलता की राह पर दौड़ने से
रमेश घोलप का जन्म महाराष्ट्र में सोलापुर जिले की वारसी तहसील में महागांव में हुआ था. उनके पिता साइकिल रिपेयरिंग की दुकान चलाते थे. शराब की बुरी लत के आगे उन्हें अपना परिवार भी नहीं दिखता था. दो वक्त की रोटी भी परिवार को बहुत मुश्किल से नसीब होती थी. डेढ़ साल की उम्र में रमेश का बांया पैर पोलियों की चपेट में आ गया. घर का खर्च निकालने के लिए रमेश की मां गांव-गांव जाकर चूड़ियां बेचती थीं. रमेश भी इस काम में अपनी मां का हाथ बांटते थे. रमेश ने अपने चाचा के घर जाकर अपनी पढ़ाई को जारी रखा. वो 2009 में एक अध्यापक बन चुके थे. आगे वो यूपीएएससी की तैयारी के लिए पुणे चले गए. साल 2011 में उनका सेलेक्शन आईएएस में हो गया. एक लड़का जिसने कभी अपनी मां के साथ चूड़ियां बेची थी, वो कभी पोस्टर पेंट करता था आज वो आईएएस ऑफिसर रमेश गोरख घोलप बन चुका था.
मां शराब बेचती थी और बेटा बन गया आईएएस
महाराष्ट्र के धुले ज़िले रहने वाले राजेंद्र भारुड जब अपनी पेट में थे तब उनके पिता का निधन हो गया था. मां के ऊपर तीन बच्चों को पालने और उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी थी. ऐसे में उन्होंने शराब बेचना शुरु किया. राजेंद्र जब थोड़े बड़े हुए तो शराब पीने आने वाले लोग कोई न कोई काम करने को कहते. उसके बदले उन्हे कुछ पैसे देते. राजेंद्र इन्हीं पैसों से किताबें खरीदते थे और पढ़ाई करते थे. 2006 में उन्होंने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा भी पास कर ली. शराबियों के लिए स्नैक्स लाने वाला लड़का अब डॉ. राजेंद्र भारुड बन चुका था. हालांकि राजेंद्र ने अब अपना लक्ष्य यूपीएससी को बना लिया और 2013 में वह आईएएस ऑफिसर बने. जो लोग कहते थे कि शराब बेचने वाले का बेटा शराब ही बेचेगा, उसको राजेंद्र ने मुंहतोड़ जवाब दे दिया था.
लकड़ी काटने वाला मज़दूर बना IAS
तमिलनाडु के तंजावुर जिले के निवासी एम शिवगुरु प्रभाकरन के हालात बेहद खराब थे. उनके पिता को शराब की लत थी. मां और बहन टोकिरियां बुनकर घर का खर्चा चलाती थीं. प्रभाकरन का सपना इंजीनियर बनना था, लेकिन पारिवारिक स्थिति के कारण उन्हें 12 वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी. उसके बाद वो एक आरा मशीन में लकड़ी काटना शुरू कर दिया. हालांकि इस दौरान भी उन्होंने अपने सपने को मरने नहीं दिया. काम के बाद भी वो स्टेशन पर जाकर पढ़ाई करते थे. 2017 में अपने चौथे प्रयास में यूपीएससी एग्ज़ाम में101 वीं रैंक हासिल की.
ये भी पढ़े:कोरोना का कहर जारी, 24 घंटे में आए 2 लाख 60 हजार से ज्यादा केस
5. केरल की पहली आदिवासी लड़की जो बनी IAS
केरल के वायनाड की रहने वाली श्रीधन्या सुरेश पहली ट्राइबल लड़की हैं, जिसने IAS की परीक्षा क्लियर की थी. उन्होंने अपने तीसरे प्रयास में 2019 में यूपीएससी में 410 वीं रैंक हासिल की. हालांकि उनका ये सफ़र आसान नहीं था. श्रीधन्धा के पिता मनरेगा में मजदूरी करते थे और बाकी समय धनुष-तीर बेचा करते थे. उन्हें सरकार की ओर से थोड़ी ज़मीन मिली थी,लेकिन पैसे की तंगी के चलते वो उसे पूरा बनवा नहीं सके. पोज़ुथाना गांव के कुरिचिया जनजाति से आने वाली श्री धन्या के परिवार के पास भले ही पैसे नहीं थे, फिर भी उनको आगे पढ़ाया गया. कोझीकोड के सेंट जोसफ कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन करने के बाद इसी कॉलेज से पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया. उसके श्रीधन्या ने यूपीएससी का मेन्स किल्यर किया, तो उनके पास इनके भी पैसे नहीं थे कि वो दिल्ली जाकर इंटरव्यू दे सकें. ऐसे में उनके दोस्तों ने मिलकर 40,000 रुपये इकट्ठा किए. तब जाकर वो दिल्ली आ पाईं.