जानिए कौन है Rajendra Bharud, जिसके Corona कंट्रोल करने के मॉडल की देशभर में तारीफ हो रही है

2013 बैच के आईएएस अधिकारी राजेंद्र भारुड ने की ऐसी कोशिश जिसकी समस्त देश में तारीफ हो रही है.

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कोरोना के कारण देश में स्थिति घातक बनी हुई है. वही  मृत्यु की गति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. आलम ऐसे है कि किसी को अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहा है, तो कही ऑक्सीजन की कमी के कारण कोरोना मरीजों की  सांसे बंद हो रही है. यही नहीं कुछ दवाओं की कमी से पीड़ित हैं तो कोई  मदद के लिए सबके सामने हाथ जोड़ रहे हैं.  ऐसी  घातक स्थिति में महाराष्ट्र का एक जिला नंदुरबार है जो इस भयानक महामारी में एक उदाहरण बन गया है.  न तो ऑक्सीजन की कमी है, न ही बिस्तर की महामारी और न ही दवाओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.  इसके पीछे  कड़ी मेहनत और समर्पण जिले के कलेक्टर डॉ राजेंद्र भारूड. जिसके मॉडल की पूरे देश में प्रशंसा हो रही है. यही नहीं उनके मॉडल का जिक्र बॉम्बे हाई कोर्ट  भी कर चुका  है. चलिए जानते है अखिर कौन है राजेंद्र भारुड जिनके मॉजल की चर्चा समस्त देश में हो रही है. 


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कौन हैं राजेंद्र भारुड?

नंदुरबार जिले में पले-बढ़े राजेंद्र भारुड 2013 बैच के आईएएस अधिकारी हैं. वह एक बहुत ही साधारण आदिवासी परिवार से है. उनका जीवन संघर्षों और चुनौतियों से भरा रहा है. उनके पिता की मृत्यु तभी हुई जब वह मां के गर्भ में थे. इसके बाद उनकी माँ ने कड़ी मेहनत करने के बाद उन्हें पाला. बचपन से ही भारुद में टैलेंट  कूट-कूटकर भरा था. वे हमेशा अपनी क्लास में टॉप करते थे.इसके बाद उनका नवोदय में सिलेक्शन हो गया फिर उन्होंने मेडिकल प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की और एमबीबीएस की डिग्री हासिल की. इसके बाद वे IAS बने और अभी नंदुरबार जिले के कलेक्टर हैं.


शुरुआत कैसे करें? क्या चुनौतियां थीं?

राजेंद्र भारुड का कहना है कि पिछले साल जब कोविड के  मामले सामने आए तो हमारे पास जिले में न तो टेस्टिंग की सुविधा थी और न ही मेडिकल कॉलेज.  200 बेड का सरकारी अस्पताल था, जो भी लगभग भर चुका था.  अगर हमने उसे कोविड अस्पताल में बदल दिया होता, तो गैर-कोविड रोगी को परेशानी होती. निजी अस्पताल कोविड के इलाज के लिए तैयार नहीं थे. इसलिए, हमने युद्धस्तर पर एक नई योजना बनाई और तुरंत काम करना शुरू कर दिया. एक अस्पताल परियोजना जो वर्षों से रुकी हुई थी, हमने इसे तीन से चार महीनों में पूरा किया.  200 से अधिक चिकित्सा कर्मचारियों की भर्ती की गई.  निजी डॉक्टरों को भी इलाज के लिए राजी किया गया. कोरोना टेस्टिंग के लिए अपनी प्रयोगशाला बनाई.  2 दर्जन से अधिक मोबाइल टीमों का गठन किया गया, जिन्होंने गांवों में जाकर तेजी से एंटीजन टेस्ट किए. राजेंद्र भारुड कहते हैं कि एक आदिवासी क्षेत्र होने के नाते यहां के लोगों को जगाना सबसे कठिन काम था. उन्हें इस बीमारी के बारे में कुछ भी पता नहीं था.  उन्हें मास्क क्या है, सैनिटाइजर क्या है इन सब बातों की जानकारी नहीं थी. हम गांव-गांव गए और लोगों से मिले. सड़कों पर माइक से अनांउसमेंट करते रहे. वीडियो बनाकर उन्होंने सोशल मीडिया पर शेयर करते थे. तब जाकर हमने पहली लहर को नियंत्रित किया.


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जब हमे पहली लहर में ही हम दूसरी लहर की बनाई योजना

वे कहते हैं कि कोरोना फर्स्ट वेव तो रुक गया, लेकिन हमारी कोशिश जारी रही. तब हमें पता चला कि एक दूसरी लहर भी होगी, जो अधिक खतरनाक होगी. इसलिए हम अपनी तैयारी को बढ़ाते रहे. जिले में तब कोई लिक्विड ऑक्सीजन प्लांट नहीं था। हमारे जिले के लोग गुजरात के सूरत और धुले पर निर्भर थे. ऐसे में हमारे सामने चुनौती थी कि अगर ये लोग कल ऑक्सीजन देने से मना कर दें तो हम क्या करेंगे? इसके बाद, हमने जिला योजना विकास कोष की मदद से पिछले साल ऑक्सीजन जनित प्लांट शुरू किया. कुछ निजी अस्पतालों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया.  वर्तमान में, हमारे पास तीन सरकारी और दो निजी यानी पांच ऑक्सीजन प्लांट हैं. हम हर दिन 50 लाख लीटर ऑक्सीजन का उत्पादन कर रहे हैं। खुद के साथ, हम अन्य जिलों के लोगों को भी ऑक्सीजन प्रदान कर रहे हैं.

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