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अक्सर उत्तराखंड की धरती को अगर आंदोलनों की धरती कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 1921 का कुली बेगार आंदोलन, 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन ऐसे कई आंदोलनों ने यह बात सिद्ध की है कि यहां की मिट्टी में पैदा हुआ हर इंसान अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है, फिर वो पुरुष हो या फिर महिला. आज हम उत्तराखंड के एक ऐसे आंदोलन की बात करेंगे जिसने एक साधारण सी महिला को इतने बड़े आंदोलन की नेत्री बना दिया. ऐसे में चलिए जानते है अखिर कौन थी गौरा देवी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जिनके संघर्ष से चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी.
आखिर कौन थी गौरा देवी
चिपको आंदोलन की घटना 24 मार्च 1976 को घटित हुई थी. इस दिन रैणी के जंगलों को काटने का आदेश दिया गया था. हालांकि, इन जंगलों को बचाने के लिए पिछले तीन साल से आंदोलन चल रहा था. यहां के पुरुषों ने पूरे जोश के साथ मोर्चा संभाला लेकिन सरकारी कूटनीति या फिर संयोग कहें कि इसी दिन लोगों को उनके खेतों का मुआवजा दिए जाने का आदेश जारी हुआ जो 1962 के बाद सड़क निर्माण के कारण उनसे छीन लिए गए थे. यही कारण रहा कि यहां के मलारी, लता और रैणी के सभी पुरुष मुआवजा लेने चमोली चले गए.
मजदूर पेड़ों को काटने के लिए जंगल की ओर जाने लगे. लेकिन उन्हें रोकने के लिए गांव में कोई पुरुष नहीं था. ऐसे में गौरा देवी ही थीं जिन्होंने 27 अन्य महिलाओं के साथ इस आंदोलन का नेतृत्व किया और 2,400 पेड़ों की कटाई को रोकने के प्रयास में लगी रहीं. गौरा देवी सहित अन्य महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए उनसे लिपट गईं, उन्होंने कहा कि पेड़ काटने से पहले आरी उसके शरीर पर चलेगी. आपको बता दें कि पेड़ों की कटाई को रोकने की कोशिश में ये आंदोलन तीन साल पहले 1973 में शुरू हुआ था. इसकी नींव 1970 में सुंदरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, प्रसाद प्रसाद भट्ट और गौरा देवी के नेतृत्व में रखी गई थी.
गौरा देवी और उनका संघर्षपूर्ण जीवन
गौरा देवी का जन्म 1925 में लता गांव में हुआ था। उनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण था. पुरानी प्रथा के अनुसार गौरा देवी का विवाह 12 साल की उम्र में रैंणी के मेहरबान सिंह के साथ हुआ था. आज की तरह तब लोग जागरूक नहीं थे, न ही गौरा देवी को पता था कि उनके साथ क्या हो रहा है. वह अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त रहने लगी. उनका परिवार पशुपालन, ऊनी व्यवसाय और थोड़ी खेती से परिवार का गुजारा करता था. गौरा देवी के जीवन की असली परीक्षा तब शुरू हुई जब नियति ने उन्हें मात्र 22 वर्ष की आयु में विधवा का जीवन जीने के लिए मजबूर किया. गौरा देवी का पति अपने ढाई साल के बेटे को गोद में छोड़कर इस दुनिया से चल बसे थे. घर की पूरी जिम्मेदारी गौरा के कंधों पर आ गई.
इतनी मुश्किलों के बावजूद गौरा ने कभी हार नहीं मानी. इसी बीच उनके सास ससुर भी चले बसे. अब केवल गौरा और उनके पुत्र चंद्र सिंह ही बचे थे. गौरा ने बहुत मेहनत की और अपने बेटे को पैरों पर खड़ा कर उसे लायक बनाया, उसकी शादी करवाई. अपनी जिम्मेदारियों के बाद जितना भी समय गौरा के पास बचता था वह उसे गांव के कामों में लगा देती थी. गौरा अपने गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष भी बनी.
चिपको वुमन के नाम से हुई मशहुर
भले ही गौरा देवी आज हमारे बीच ना हो लेकिन उन्होंने जो किया उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. लोग आज भी उन्हें चिपको वुमन के नाम से जानते है. गौरा देवी ने जंगल के प्रति अपना स्नेह दर्शाते हुए कहा था कि ये जंगल हमारी माता के घर जैसा है. यहां से हमें फल, फूल, सब्जियां मिलती हैं, अगर यहां के पेड़-पौधे काटोगे तो निश्चित ही बाढ़ आएगी. जुलाई 1991 में गौरा देवी 66 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गई.
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