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बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी की बगावत के बीच जेडीयू और बीजेपी की दोस्ती में 'शक' की एंट्री हो चुकी है। मजबूरी की डोर से बंधे बीजेपी और जेडीयू 'शह' और 'मात' के उस खेल में लगे हुए हैं, जो वक्त के साथ सबके सामने होगा। केंद्र हो या राज्य बीजेपी किसी भी गठबंधन में खुद को सबसे ज्यादा मजबूत रखना चाहती है। लेकिन बिहार में ऐसा हो नहीं पाता। यहां नीतीश की ही चलती है। क्योंकि बिहार में बीजेपी सीट और मजबूत नेतृत्व के मामले में पीछे है। यूं कहें दो नंबर पर है।
सियासी पंडितों का मानना है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नीतीश कुमार को छोड़ना तो नहीं चाहता, लेकिन कमजोर करना चाहता है। दूसरी तरफ बीजेपी को इस बात का भी डर है कि नीतीश कुमार कहीं दोबारा आरजेडी के साथ गठजोड़ न कर लें। यही वजह है कि बीजेपी ने इस चुनाव में दोहरी रणनीति अपनाई है। इसके तहत लोजपा को खुली छूट देकर जेडीयू को कमजोर करने की योजना है, ताकि उसकी सीटे प्रभावित जाएं। यदि ऐसा हुआ और बीजेपी की सीटें बढ़ीं, तो बिहार में नंबर एक पार्टी बन जाएगी।
बिहार चुनाव में कुछ और टिकटों की मांग कर रहे 'पासवान' ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि बीजेपी उसको 100 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की ऐसे छूट दे देगी। दरअसल, इसकी पठकथा एक पखवाड़े पहले एक मीटिंग के दौरान लिख दी गई थी। बीजेपी महासचिव भूपेंद्र यादव, बिहार प्रभारी देवेंद्र फड़नवीस के साथ इस मीटिंग में सीट बंटवारे को लेकर चर्चा हो रही थी। इसी बीच किसी बात से जेडीयू के ललन सिंह नाराज हो गए। उन्होंने सीधा कह दिया कि यदि बीजेपी का ऐसा ही रवैया रहा था जेडीयू अकेले चुनाव लड़ेगी।
एक-दूसरे की क्यों हैं मजबूरी
बीजेपी और जेडीयू एक-दूसरे की मजबूरी क्यों हैं? यह एक बड़ा सवाल है, जो हर किसी के मन में आता है। बीजेपी का मानना है कि कोरोना के दौरान प्रवासी संकट के बाद नीतीश कुमार की लोकप्रियता घट गई है। हालांकि, अभी भी उसको नीतीश कुमार की पिछड़ी जाति के वोट की जरूरत है। ठीक वैसे ही जैसे कि जेडीयू बीजेपी की अगड़ी जाति के वोटों पर निर्भर है। वोट के अलावा गठबंधन भी एक बड़ी वजह है, क्योंकि बीजेपी लालू यादव की पार्टी आरजेडी से कभी हाथ नहीं मिला पाएगी।
'शह' और 'मात' का खेल जारी
चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार ने बीजेपी को सीएम उम्मीदवार के रूप में अपने नाम की घोषणा करने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन वह लोजपा को मोदी और पासवान के पोस्टर एक साथ लगाने रोक नहीं सकते। राम विलास पासवान के निधन के बाद जिस तरह मोदी ने चिराग को ढ़ांढस बंधाया, उसमें समझने के लिए बहुत कुछ है। इस तरह इस बार बीजेपी बिहार चुनाव में दिलचस्प प्रयोग करने जा रही है। एक तरफ गठबंधन में जेडीयू के साथ चुनाव लड़ेगी, तो दूसरी तरफ बिना गठबंधन लोजपा के साथ।
बिहार में गठबंधन की जरूरत
बीजेपी ने 1980 और 1995 के बीच बिहार चुनाव अपने दम पर लड़ा था। उस वक्त हिन्दुत्व मुद्द गरम था। इसके बाद भी बीजेपी के वोट शेयर में गिरावट आई थी। इसकी एक प्रमुख वजह बिहार में ओबीसी राजनीति का दबदबा होना बताया जाता है। पिछले तीन दशक से सूबे में मंडल की राजनीति हावी है। इसने बीजेपी को बिहार में नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व वाली समता पार्टी के साथ गठबंधन करने के लिए मजबूर किया था। साल 2003 में यही समता पार्टी विलय के बाद जेडीयू बन गई थी।
सूबे में हावी है जाति की राजनीति
बिहार और यूपी में जाति की राजनीति सबसे ज्यादा देखने को मिलती है। यहां सियासी दल जातिगत आधार पर वोट मांगते हैं। जैसे यूपी में सपा को यादवों, तो बसपा को दलितों की पार्टी माना जाता है। इसी तरफ बिहार में अधिकतर यादव आरजेडी के लिए, कोइरी और कुर्मी जेडीयू के लिए, महादलित लोजपा और सवर्ण बीजेपी के लिए वोट करते रहे हैं। जातिगत समीकरण को आधार पर बनाकर सियासी दल यहां गठबंधन करते हैं।
लेखक:- मुकेश कुमार गजेंद्र (कंटेंट एडिटर, इंस्टाफीड)
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