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राजपुताना राइफल्स का एक ऐसा योद्धा जो कारगिल युद्धा का असली नायक है

देश में मेजर पद्मपाणि आचार्य नाम के एक वीर हुआ करते थे जिनकी कहानी सुन आपके अंदर भी जाग उठेगा भारत का एक वीर.

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By Deepakshi | खबरें - 23 March 2021

आदि से अनंत तक बस यही रही है परंपरा

 कायर भोगे दुख सदा, वीर भोग्य वसुंधरा

ये राजपुताना राइफल्स का आदर्श और सिद्धांत वाक्य है. इसका अर्थ होता है कि जो वीर और पराक्रमी लोग होते हैं वही इस धरती की शान होते हैं. कायर लोग मृत के समान होते हैं. इस देश में मेजर पद्मपाणि आचार्य नाम के एक वीर हुआ करते थे. उनकी शौर्य और पराक्रम के आगे दुश्मनों के पसीने निकल जाते थे. देश की आन-बान-शान के लिए उन्होंने अपनी जान न्योछावर कर दी थी. उनकी बहादुरी को देखते हुए भारत सरकार ने मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया था.

कौन थे मेजर पद्मपाणि आचार्य

मेजर आचार्य मूल रूप से ओडिशा से थे और हैदराबाद, तेलंगाना के निवासी थे. उनकी शादी चारुलता से हुई थी. चारुलता अचार्य और पद्मपनी  की मुलाक़ात 1995 में हुई. उस समय चारुलता 22 साल की थी. दोनों की मुलाक़ात ट्रेन में हुई थी. चारुलता अपनी आंटी के साथ चेन्नई जा रही थी. उनके साथ पद्मपनी  भी हमसफ़र बनने के लिए सफ़र कर रहे थे. हुआ कुछ यूं था कि चारुलता की आंटी को दूध की ज़रूरत थी. पैंट्री में जाने पर चारु को पता चला कि वो बंद है तभी पद्मपनी  ने चारुलता से पूछा- आपको क्या चाहिए?

चारुलता का जवाब था- आंटी के लिए दूध की ज़रूरत थी.

पद्मपनी  चारुलता से फ्लास्क लेते हैं और 15 मिनट में दूध के साथ वापस आ जाते हैं. चारुलता उन्हें टैमरिंड राइस के लिए पूछती है. ट्रेन में ही दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं. मेजर पद्मपनी  चारुलता से फोन नंबर मांगते हैं, पर चारुलता मना कर देती हैं. क्योंकि उनके पास अपना लैंडलाइन नहीं था. मेजर पद्मपनी अपना लैंडलाइन नंबर देते हैं और कॉल करने के लिए कहते हैं. दूसरे दिन चारुलता पड़ोसी के लैंडलाइन से पद्मपनी  को कॉल करती हैं. पद्मपनी  फोन उठाते है और अपनी मां से बात करवा देते हैं.

पद्मपनी  की मां चारुलता से कहती हैं कि वो अपने बेटे की शादी के लिए लड़की खोज रही हैं. मेरे बेटे ने तुम्हारे बारे में बताया है. वो तुम्हे पसंद करता है. ठीक उसी समय चारुलता को पता चलता है कि पद्मपनी  फौज में है. शुरुआत में मेरे पैरेंट्स उलझन में थे क्योंकि पद्मपनी  फौज में थे. बाद में पद्मपनी  के पैरेंट्स ने हैदराबाद में अपने घर पर हमें आमंत्रित किया ताकि मैं उन्हें आसानी से समझ सकूं. हम वहां लगभग 3 दिन रुके थे. चारुलता बताती है कि पद्मपनी  बेहद शर्मीले थे. उन्होंने मुझसे कहा था कि अगर हमारी शादी नहीं हो पाई तो हमसे लव लेटर की उम्मीद मत करना.


सेना से बेहद प्यार था मेजर पद्मपनी  को

28 जनवरी 1996 को चारुलता और मेजर पद्मपनी  की शादी हुई. शादी के 2 साल तक दोनों ग्वालियर में सेना बैरक में रहे. चारुलता बताती हैं कि परिवार के साथ रहने के बावजूद मेजर पद्मपनी  सेना के जवानों के साथ रहते थे. मेजर होने के कारण उनके ऊपर कई ज़िम्मेदारियां थीं. शुरुआत में मैं रोने लगती थी, मगर कुछ दिनों में पता चल गया कि एक सेना की ज़िंदगी कैसी होती है.

पद्मपनी  पापा बनने की ख़ुशी में पागल हो गए थे

चारुलता बताती हैं कि 1999 में मेरे पैरेंट्स घर आए थे. उस समय मुझे माहवारी (पीरियड्स) नहीं आ रहे थे. मैंने अपनी मां को इस बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि मैं गर्भवती हूं. जैसे ही ये ख़ुशखबरी मेजर पद्मपनी  को पता चली वो ख़ूब खुश हुए थे. फरवारी 1999 को वो मुझे हैदराबाद लेकर आ गए थे. ताकि बच्चे की देखभाल हो सके. हैदराबाद आते ही उन्होंने केसर का एक पैकेट अपनी मां को देते हुए कहा कि इसे चारु को रोज़ देना, तुम मत खा जाना.

गर्भवती पत्नी को छोड़कर देश के लिए लड़ने चले गए थे

1999 में देश पाकिस्तान ने हमला कर दिया था. ये ख़बर जब मेजर पद्मपनी को पता चली तो वो रुके नहीं. मातृभूमि की रक्षा के लिए चले गए.

काश मैं आख़िरी बार गले मिल पाती

चारुलता बताती हैं कि जब मेजर देश की रक्षा के लिए सीमा पर जा रहे थे तो हम उन्हें हैदराबाद रेलवे स्टेशन पर छोड़ने आए थे. मेरी सास ने तो अपने बेटे को गले लगा लिया, मगर मैं उन्हें आखिरी बार गले नहीं लगा सकी. हमारी संस्कृति में सार्वजनिक जगह पर पति को गले लगाना सही नहीं माना जाता है. मेरे दिल में वो कसक अभी तक रह गई है. मैं बस मुस्कुराती हुई मेजर साहब को विदा कर पाई.

ससुर के मरने पर भी घर नहीं आए मेजर

चारुलता के पापा की मृत्यु 26 जून 1999 को हुई थी. मेजर पद्मपनी को कंपनी की तरफ़ से छुट्टी भी मिल रही थी, मगर वो नहीं आए. उन्होंने देश को चुना.


देश के लिए अमर हो गए

कारगिल युद्ध के दौरान मेजर पद्मपनी आचार्य को अपनी सेना टुकड़ी के साथ दुश्मन के कब्जे वाली अहम चौकी को आजाद कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई. यह जगह बेहद खतरनाक थी क्योंकि यहां दुश्मनों ने जमीन में माइंस बिछा रखे थे ताकि कोई भी भारतीय सैनिक दुश्मन कब्जे वाले एरिया में एंट्री करते ही माइंस के विस्फोट में मारा जाए.

इस चाल को मात देने के लिए मेजर पद्मपनी आचार्य ने अपनी टीम के साथ मिल कर योजना बनाई और आगे बढ़े. दुश्मनों के पास अत्याधुनिक हथियारों थे. वह लगातार फायर कर रहे थे मेजर को कई गोलियां लग चुकी थी. उन्होंने आगे बढ़कर फायरिंग की और अपनी टीम के साथ मिलकर दुश्मनों को खदेड़ दिया. इसके बाद मेजर पद्मपाणि ने दम तोड़ दिया और हमेशा के लिए अमर हो गये.

जब उनकी शहादत की ख़बर आई

28 जून 1999 को चारुलता के पास फोन आता है. फोन उठाने के बाद कट जाता है. ऐसा 3 बार होता है. बाद में मेजर पद्मपनी की मां फोन उठाती हैं. उन्हें मेजर की शहादत की ख़बर दी जाती है. उन्होंने आखिरी बार अपने माता-पिता से 21 जून को बात की थी. जो उनका जन्मदिन था.

महाभारत की कहानी

कारगिल में चोटी पर कब्ज़ा करे जाने से ठीक दस दिन पहले  मेजर पद्मपनी आचार्य ने अपने पिता को लिखा कि वे अपनी बहू को महाभारत की एक कहानी रोज पढ़ाए ताकि उनका पोता संस्कारों का पालन करे.

भगवान ऐसा वीर बेटा हर हिन्दुस्तानी को दे

शहीद मेजर पद्मपनी आचार्य के मां-बाप अपने बेटे की शहादत पर गर्व करते हैं. वे कहते हैं कि भगवान ऐसा वीर बेटा हर हिन्दुस्तानी को दे.

पिता की शहादत पर बेटी को गर्व है

शहीद मेजर पद्मपनी आचार्य की बेटी का नाम अप्राजिता आचार्य है. वो भी आर्मी ज्वाइन कर अपने पापा की तरह देश का नाम रौशन करना चाहती हैं.

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