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Parle-G... जब भी ये शब्द सुनते हैं तो आपके दिमाग में क्या आता है? बचपन की यादें, दादी-नानी के दिए हुए पैसे, स्कूल- कॉलेज के दिन. कभी दूध के साथ तो कभी चाय के साथ, कभी नाश्ते में तो कभी फिल्म देखते समय. पारले जी बिस्किट जनता का बिस्किट बन गया है. इससे लोगों का बचपन जुड़ा हुआ है. आइए आज आपको इस कंपनी के बारे में बताते हैं, इसकी शुरुआत कैसे हुई, कैसे ये अंग्रेज सैनिकों का फेवरेट बिस्किट बन गया.
उससे पहले आपको पारले जी से प्यार करने वाले लोगों से मिलवाता हूं. हमने देश भर के लोगों से पारले जी से जुड़ी यादों को शेयर करने को कहा, सभी लोगों ने अपनी यादों को हमारे साथ शेयर किया.
इंस्टाफीड मीडिया कंपनी के टेक्निकल हेड गौतम रामपाल को माँ की याद आ जाती है
कुवैत में स्थित भारतीय डॉक्टर सुमंत मिश्रा को अपना बचपन याद आ जाता है
इंस्टाफीड कंपनी के डायरेक्टर सागर अरोड़ा कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान हमारा लंच, डिनर और नाश्ता हुआ करता था पारले जी.
क्रिकेट मैच में हमारा ट्रॉफी हुआ करता था पारले जी
बॉनी पॉलिमर्स कंपनी में कार्यरत संजना बिष्ट को पारले जी में नानाजी का प्यार दिखता है.
सुबह की चाय से लेकर ऑफ़िस की गॉसिप तक, घर की बतकही से लेकर चौक-चौराहे तक, गरमा-गरम चाय के प्याले का साथ देता आया है पारले-जी (Parle-G). शायद ही कोई भारतीय हो, जिसने चाय में ये बिस्किट डुबो कर न खाया हो. देश के सबसे पसंदीदा बिस्किट के बनने की कहानी भी कम ख़ास नहीं.
साल 1929 की बात है, जब भारत आज़ाद नहीं हुआ था. सिल्क व्यापारी मोहनलाल दयाल स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित थे. वो भारत देश के लिए कुछ करना चाहते थे. उन्होंने मुंबई के विले पारले इलाके में एक पुरानी बंद पड़ी फैक्ट्री खरीदी. इसे उन्होंने कन्फेक्शनरी बनाने के लिए तैयार किया. कुछ साल पहले वो जर्मनी गए और कन्फेक्शनरी बनाने की कला सीखी. वहीं से उन्होंने 60 हजार रुपए में कन्फेशनरी मेकिंग मशीन खरीदी और वापस भारत वापस लौटे, उसके बाद उन्होंने अपने परिजनों के साथ मिलकर पारले-जी कंपनी की शुरुआत की.
पारले जी को परिवार वाली कंपनी कहना ग़लत नहीं होगा. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि फैक्ट्री में 12 लोगों के साथ काम की शुरुआत हुई. ये सभी मोहनलाल के ही परिवार के सदस्य थे जो इंजीनियर, मैनेजर और कन्फेक्शनरी मेकर बन गए. कहते हैं, कंपनी के मालिक अपने काम में इतने मशगूल थे कि कंपनी का नाम तक नहीं रखा. लिहाजा समय के साथ भारत के पहले कन्फेक्शनरी ब्रांड का नाम उसकी जगह के नाम पर पड़ा- पारले.
मोहनलाल ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी ये ब्रांड देश की पहचान बन जाएगी.
पारले ने फैक्ट्री शुरू होने के 10 साल बाद 1939 में बिस्किट बनाना शुरू किया. उस वक्त तक भारत में मिलने वाला बिस्किट बाहर से आयात किया जाता था, इसलिए महंगा होता था. इसे सिर्फ अमीर ही खरीद पाते थे. बाजार में यूनाइटेड बिस्किट, हंटली एंड पाल्मर्स, ब्रिटानिया और ग्लाक्सो जैसे ब्रिटिश ब्रांड का कब्जा था.
पारले ने अपने बिस्किट को आम जनता के लिए सस्ती कीमत पर लॉन्च किया. भारत में बना, भारत की जनता के लिए, हर भारतीय को उपलब्ध बिस्किट जल्द ही आम जनता में लोकप्रिय हो गया. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश-इंडियन आर्मी में भी पारले बिस्किट की भारी डिमांड थी.
1947 में हमें आजादी मिली. ठीक उस साल पाकिस्तान का भी विभाजन हुआ था. इस वजह से देश में गेहूं की कमी हो गई. पारले को अपने ग्लूको बिस्किट का उत्पादन रोकना पड़ा क्योंकि गेहूं इसका मुख्य स्रोत था. इस संकट से उबरने के लिए पारले ने एक आइडिया लगाया. उसने देशवासियों के लिए जौ से बने बिस्किट बनाने शुरू कर दिए. इसके अलावा कंपनी ने एक विज्ञापन में कंपनी ने स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए अपने कंज्यूमर से अपील की, जब तक गेहूं की सप्लाई नॉर्मल नहीं हो जाती, तब तक जौ के बने बिस्किट का इस्तेमाल करें. इस अपील को देशवासियों ने हाथोंहाथ ले लिया. देशभक्ति की भावना से ये ब्रांड जुड़ गया.
जब पारले ग्लूको बन गया पारले-G
नई ब्रांडिंग ने बच्चों और उनकी माताओं को भले आकर्षित किया, लेकिन अन्य ग्लूकोज बिस्किट से पारले कैसे अलग दिखे, ये समस्या जस की तस थी. साल 1982 में पारले ग्लूको को पारले-जी के रूप में री-पैकेज किया गया. इसमें G का मतलब था ग्लूकोज. पैकिंग को भी वैक्स पेपर से बदलकर कम कीमत वाले प्रिंट प्लास्टिक कवर में कर दिया गया. कंपनी के इस कदम ने ही पारले को अन्य नकली कंपनियों से अलग खड़ा कर दिया.
1960 के दशक तक कई अन्य ब्रांड ने भी ग्लूकोज बिस्किट लॉन्च कर दिए. इसका फायदा नकलची कंपनियों ने उठाना शुरु कर दिया. पारले जी के उपभोक्ता को सही ब्रांड खरीदने में परेशानी होने लगी. इसका असर पारले बिस्किट की बिक्री पर पड़ने लगा. कंपनी ने नई पैकेजिंग बनाने का फैसला किया. अब पारले एक पीले वैक्स पेपर में लपेटकर आने लगा. इसके ऊपर लाल रंग के पारले ब्रांडिंग के साथ एक छोटी लड़की की तस्वीर होती थी. इस लड़की का इलस्ट्रेशन एवरेस्ट ब्रांड सॉल्यूशंस के मगनलाल दहिया ने तैयार किया था. इस ब्रांडिंग के कारण पारले जी की बिक्री फिर से होने लगी.
8 दशकों से पारले की सफलता का राज
ये थी भारत की देसी ब्रांड की बनने की कहानी. आपको हमारी कहानी कैसी लगी? कमेंट करके बताइएगा. आप हमारी इस स्टोरी को शेयर कीजिए ताकि देश की कहानी पूरे देशवासियों को पता चल सके. आपको हर सप्ताह हम एक नए स्वदेशी ब्रांड के बारे में बताएंगे.
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