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एक व्यक्ति को सन्यासी बनने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है व्यक्ति जब चेतना के सबसे ऊंचे स्तर पर होता है, तब वह सन्यासी बनता है। समाधि लेना संत परंपरा का हिस्सा माना जाता है। वहीं, जैन संत आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने भी जैन धर्म में प्रसिद्ध संलेखना विधि से अपने प्राणों को त्यागा था। जैन धर्म में समाधि लेने को संलेखना विधि कहा जाता है। मान्यताओं के अनुसार, सुख के साथ और बिना किसी दुख के मृत्यु होना संलेखना कहा जाता है। इस दौरान व्यक्ति को यह आभास हो जाता है कि उसकी मृत्यु निकट है, ऐसे में वह अन्न-जल का पूरी तरह से त्याग कर देता है इतना ही नहीं इस दौरान साधक अपना पूरा ध्यान ईश्वर में केंद्रित कर देता है और देवलोक को प्राप्त हो जाता है। अधिक जानकारी के लिए बता दें कि, मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने भी संलेखना विधि द्वारा ही अपने प्राण त्यागे थे।
जैन धर्म में संलेखना क्यों है खास
जैन धर्म की मान्यता के अनुसार देखा जाए तो जब व्यक्ति अकाल, बुढ़ापा या किसी रोग की स्थिति में होता है जिसका अंत में कोई उपाय न हो तो वह संलेखना की परंपरा के जरिए अपने शरीर का त्याग कर देता है। इतना ही नहीं जैन धर्म में इस प्रथा को संथारा, सन्यास, समाधि-मरण, इच्छा-मरण आदि नाम से भी जाना जाता है। जैन धर्म में यह भी बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति इस विधि से मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह अपने कर्मों के बंधन को कम करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसके अलावा व्यक्ति द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्मों के लिए ईश्वर से क्षमा मांगने का एक अच्छा तरीका है। असल में देखा जाए तो यह शांति विचार से मृत्यु को स्वीकार करने की एक पूरी प्रक्रिया है।
क्यों जरूरी होता है यह नियम
बता दें कि, इस संलेखना विधि द्वारा अपने प्राणों का त्याग करने से पहले अपने गुरु की अनुमति लेनी होती है, इसके बाद ही इस प्रथा को पूरा किया जाता है। यदि गुरु जीवित नहीं है, तो सांकेतिक रूप से उनसे अनुमति लिया जा सकता है। इसके बाद संलेखना या संथारा-धारण करने वाले व्यक्ति की सेवा में चार या उससे अधिक लोग लगे रहते हैं वह व्यक्ति को योग-ध्यान, जप-तप आदि कराते हैं और मृत्यु की अंतिम क्षण तक उस व्यक्ति की सेवा में लीन रहते हैं।
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